Tuesday, April 9, 2013

मंझधार !!

कभी की थी चाहत
हवाओं में उड़ने की
जाकर सात समंदर पार
सपनों को जीने की

साकार सपनों को
करने की दौड़ में
सबसे आगे निकलने
की होड़ में
छोड़ आया पीछे
क्या क्या
अब तो वो भी
याद नहीं

भूल गया था
कि
जब भी ऊँचाइयों
पर जाऊँगा
ठंडी बर्फ ही
पाऊंगा
संवेदना शून्य
और
सर्द अहसासों
के बीच
किसी
मरीचिका में
खो जाऊँगा

दुनिया होगी
भले ही
क़दमों के नीचे
पर
वो खिलखिलाती
किलकारियां
कहाँ से लाऊंगा

ढूँढता हूँ
आज किनारे
इस ज़िन्दगी की
मंझधार में
मिल जाये कहीं
एक उष्म छाँव सी
आपाधापी की
इस सर्द धूप में

सोचता हूँ
छोड़ कर सब
आज बैठूं
कुछ बात करूँ
जीवन के बारे में
कि
छिपे रहस्य हैं सारे
मंझधार में
रखा क्या है
किनारे में

पर
बड़ते जाते हैं
फासले अब
हर कदम पर
कभी थे हम
जल्दी में
आज
समय किसी के पास नहीं.....