Thursday, June 10, 2010

कभी कभी !!

कभी कभी
रातों को
नींद
नहीं जब आती
देखता हूँ
बस
खाली छत
और
याद करता हूँ
उन रातों को
जब
सोते थे
खुले आसमां के नीचे
और
गिनते थे तारे
वो छूकर जाना
उस शीतल बयार का
और कर जाना
तरो ताज़ा
तन और मन
दोनों को
और
कितनी कहानियां
याद आती हैं
जो सुनी थी
उस खुले
आकाश के नीचे
माँ से और मौसी से
याद आता है
वो माँ का
सुनाते सुनाते कहानी
सो जाना
और फिर
हमारा उनको जगाना
माँ कहती
अब सो जाओ
रात बहुत हो गयी
और
आँख बंद करते ही
वो गहरी नींद का आना
और आज
इस वातानुकूलित शयनकक्ष में
वो शीतल बयार कहाँ
वो कहानी वो थपकी कहाँ
और सब कुछ है
पर नींद कहाँ
तब एक करवट सोते थे
और आज
सिर्फ
करवटें बदली जाती हैं
अजनबी हैं
तारे भी
इस परदेस में
पड़ोसियों की तरह
दिखते हैं जो
सिर्फ
खिड़की से
देखता हूँ उनको
मैं
और सोचता हूँ
कभी कभी

अकेला !!

है इतनी भीड़
हूँ फिर भी
अकेला
रहता हूँ
शहर में
लगता फिर भी
वीराना
हैं लोग इतने साथ
दिल है
फिर भी
तन्हा
लिए तन्हा दिल
भटकता हूँ
इस वीराने में
देता हूँ
आवाज़
पर आती
वो भी लौट
टकरा के
इस सन्नाटे से
जैसे
रहना है
खामोश
हर सदा को
इस वीराने में
जैसे
रहना है
अकेला
हर किसी को
इस भीड़ में