Friday, August 8, 2008

म्रगत्रष्णा !!

तन थका है
मन व्यथित है
जीवन डगर पर
जैसे
कदम शिथिल हैं

एक दौड़ है
जो
खत्म ही नहीं होती
जितना भी
भागता हूँ
मंजिल
उतनी ही
दूर जाती

एक प्यास है
जो
बुझती ही नहीं
या
है शायद
कोई
म्रगत्रष्णा

Friday, August 1, 2008

खामोशी !!

एक अजीब सा
सन्नाटा है
जैसे
खामोश हैं राहें
खामोश है जिंदगी
नहीं आती
कोई सदा
जैसे
हैं किसी वीराने में

अपनी चीखें भी
खामोश हैं
इस वीराने में
जैसे
निकली ही नहीं
गले से

तूफ़ान भी
निकला है
अभी अभी
बहुत खामोशी से
जैसे
इस वीराने में
वह भी डर गया हो
इस सन्नाटे से
और इसीलिए
निकल गया
चुपचाप

कोई तो आवाज
उठेगी
तोड़ने
इस खामोशी को
जो
दूर करेगी
इस सन्नाटे को

इंतज़ार है
उस सदा का
जो आएगी
इस वीराने से
और
खत्म कर देगी
इस खामोशी को
तोड़ देगी
इस अजीब से
सन्नाटे को



Friday, July 11, 2008

जिंदगी !!

सोचता हूँ
कभी
खाली बैठे
जब मिलते
दो चार पल
फुरसत के
कि
कहाँ
आ गए हम

क्या पाया
क्या खोया
तब
कुछ हिसाब करता हूँ

जिंदगी का
लेखा जोखा
मुझको बताता है
कितनी खुशी
कितना गम
कितना सुख
कितना दुःख
पाया हमने

पर
क्या यही था
वह सब
जिसके लिए जीते आए
अब तक
क्या यही है
जिंदगी का सिला
जीने का मकसद

प्रश्न उठते है
पर
कोई उत्तर
नही पाता हूँ
बस
सोचता हूँ

Wednesday, May 28, 2008

यादें !!

यादें
ले जाती हैं
कभी कभी
जीवन के
उस मोड़ पर
जहाँ
थे कई संगी साथी
और उनके साथ
बिताये पल छिन
याद दिलाती हैं

छूटे सभी
सफर में
कोई यहाँ
कोई वहाँ
हमको बताती हैं

कुछ तो
याद भी नहीं आते
अब
और कुछ
याद तो आते हैं
पर उनके नाम
जो
भूल गए हम
यादें भी
याद नहीं दिला पाती
अब तो

हर गुजरते
पल में हम
कुछ पाने के साथ
खो देते हैं कुछ
जो वापस
नहीं आएगा कभी
और रह जाएँगी
बस उनकी
यादें






Monday, February 11, 2008

दोराहा !!

जाने कैसे दोराहे पर
लायी है जिंदगी
खो दिया है जहाँ
खुद को

जिसे चाहा उसे पाया नही
जो पाया उसे चाह ना सके
इस कशमकश में
उलझा हूँ

एक तरफ है फ़र्ज़ राह में
जिससे मुँह मोड़ नही सकता
दूसरी तरफ है मेरी चाहत
जिसे छोड़ नही सकता

उलझन उलझती जाती है
जितना सुलझाता हूँ
इस दोराहे पर
कोई राह न पाता हूँ

धूप !!

धूप के तेवर
बड़े संगीन से हैं
पावँ के छालों
सफर रुकने न पाये

पावँ छोटे जिंदगी के
सफर लंबे
कौन जाने
है कहाँ
मंजिल हमारी
हो गया मुश्किल
बहुत
बच कर निकलना
हर तरफ़ बैठे
मचानों पर
शिकारी
छाँव की तासीर भी
चुभने लगी है
मन
कभी भी
हौसला चुकने ना पाए

कब तलक देते
तसल्ली
थके मन को
प्यास थोडी सी बुझाई
आसुओं ने
क्यूँ मिलन की राह
होती बहुत छोटी सी
औ विरह के छोर
थामे निर्जनों ने
दिन ढलेगा
शाम
आख़िर आएगी ही
भावना का यह शिखर
झुकने ना पाये

छाँव सुधियों की
कभी जब घेरती है
आहटों में
पल बसंती डोलते हैं
मरुस्थलियों में
लहरियां उठने लगी हैं
प्रीत के स्वर
माधुरी रस घोलते हैं
टूटते हालात में भी
मौन रिश्ता
धैर्य रखना
ये कभी मिटने न पाये

घर !!

कुछ कहा नहीं जाता
अपने ही घर में

कल तक हंसी ठहाके
जिसमें गूंजे
सुबह शाम रात को
तरस रहा है
कोना कोना
कब से
उन बीती बातों को

यह सहा नहीं जाता
अपने ही घर में

सूख चली है
नदी प्यार की
जाने तपिश
कहाँ से आई
तेवर बदल रहे
संबोधन
मुस्कानें हो गईं
परायी

अब रहा नहीं जाता
अपने ही घर में

बिन तुम्हारे !!

कई बार
शब्द ना मिले
तो
कई बार आईं
खामोशियाँ
हमारे हिस्से में

दिल दोनों के
धड़क रहे थे
एक दूजे के लिए
सुन रहे थे
हम धड़कन
पर कह ना पाए

वक़्त लाया है
अब हमको
साथ साथ
तो
दूर ना जाना
अब तुम
हमसे
जी ना पायेंगे
अब
बिन तुम्हारे

....

हमने दुनिया में क्या कमाया है
धूप अपनी ना अपना साया है

मेरी आँखों में देख कर आसूं
आइना भी आज मुस्कुराया है

उसका साया तलाश करते हो
जिसका सारे जहाँ पर साया है

मेरे अन्दर की अपनी चीखों ने
मेरी आवाज़ को दबाया है

आंसुओं ने हमारी आँखों में
कितनी मेहनत से घर बनाया है

तुम !!

जब तुम नदी तट पर
नहीं मिले थे
तो जिंदगी थी हमारी
एक सूखी रेत की
पगडंडी की तरह

तुम मिले
नदी तट का वह
उल्लासित कोना
अपनी
कलकल ध्वनि से
तरंगित हो उठा

तुम मिले
नदी तट पर फैलती
सूरज की असंख्य किरणें
चमकने लगीं
मेरे मन आँगन में

तुम मिले
मेरे शुष्क ह्रदय का
हर कोना
खिला नई कोपल सा

तुम मिले
पूर्णिमा की दूधिया रोशनी में
मेरा तन श्वेत सरिता बन
मन मयूरी सा खिल उठा

जब तुम मिले
तो जाना जीवन का
हर पल
अपनेपन से है
भरा भरा