जब तुम नदी तट पर
नहीं मिले थे
तो जिंदगी थी हमारी
एक सूखी रेत की
पगडंडी की तरह
तुम मिले
नदी तट का वह
उल्लासित कोना
अपनी
कलकल ध्वनि से
तरंगित हो उठा
तुम मिले
नदी तट पर फैलती
सूरज की असंख्य किरणें
चमकने लगीं
मेरे मन आँगन में
तुम मिले
मेरे शुष्क ह्रदय का
हर कोना
खिला नई कोपल सा
तुम मिले
पूर्णिमा की दूधिया रोशनी में
मेरा तन श्वेत सरिता बन
मन मयूरी सा खिल उठा
जब तुम मिले
तो जाना जीवन का
हर पल
अपनेपन से है
भरा भरा
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